Tuesday 8 November 2011

पहाड़

पहाड़ की पथरीली भुजाओ में दुबका,
सहमा हुआ सा गाँव था :

पहाड़ की, पहाड़ की सी काया थी,
गाँव पर,
... पहाड़ की छाया थी;

हर गली के मुहाने पर,
होठों में जीभ फेरता
पहाड़ खड़ा था;

किसान के पेट में ,
पहाड़ की सी भूख थी,
बच्चे की फटी-फटी आँखों में,
पहाड़ की सी सुबक थी;

टूटे छप्परों की सुराखों से,
झांकता था पहाड़,
हाँफते गाँव की छाती पर,
सवार था पहाड़,

रात को पहाड़ का न दिखना,
पहाड़ के न होने जैसा था,
पर सुबह,,तालाब के हरे जल में,
उल्टा टंगा,
हाथों से लाल रंग छुड़ाता,
दिखता था पहाड़;

दुपहर पहाड़ के शिखर से देखा,
पहाड़ कहीं नहीं था,
पैरों के नीचे ,
जैसे मारा हुआ शेर कोई;

गाँव था,
नवजात चूजों की तरह सुगबुगाता,
और हरियाली थी,

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